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Astrology classes part 1 ज्योतिषिय तत्व सिद्धांत

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Astrology classes part 1 ज्योतिषिय तत्व सिद्धांत

तत्व सिद्धांत

प्रकृति के हर एक तथ्य का संबंध किसी न किसी तत्व से ही संबंधित हैं , और उन तत्वों का संबंध उन पाँच मुल भूतो से संबंधित हैं , जिसे पंच महाभूत कहा जाता हैं । उसी पंच महाभूतो के आधार पर सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य छिपा हुआ हैं । चुकी सृष्टि की रचना और क्रियात्मक पहल का प्रभाव जीवन स्थापत्य के आधार विंदु पर आधारित विषयों को निर्धारित करता आया हैं । इसीलिए ईश्वरीय़ सत्ता स्वरूप भगवान के तथ्य को परिलक्षित करता हैं ।

ईश्वरीय सत्ता स्वरूप भगवान रूपी पंच महाभूत     भूमि , गगन , वायु , आकाश , और नीर सृष्टि के रचना के तथ्यों को दर्शाता हैं । इसी ईश्वरीय सत्ता के गुण रूप रंग स्तिथि और स्वाभाविक लक्षणों की व्याख्या अपने अनुभूतिक आधार पर करने का माध्यम जो दृष्टि बनता हैं वही ईश्वरीय-ज्योति  ज्योति + ईश = ज्योतिष की नींव को निर्धारित करता हैं ।

उपरोक्त संदर्भ में ज्योति का अर्थ यहाँ पर प्राण वायु से संबंधित माना जाना चाहिए क्योंकि ज्योति का अर्थ ज्योतिषीय आधार विंदु पर प्रकाश से अत्यधिक प्रभावशील समुचित अर्थ प्राण ऊर्जा से संबंधित हैं । ज्योतिष ईश्वरीय प्राण ऊर्जा से लक्षित प्राकृतिक स्वरूप हैं । इसी तत्वों के गुण प्रभाव स्तिथि आधार व स्वरूप के बारें में जानने मात्र से ही ज्योतिषीय कारक का फलित पूर्ण हो जाता हैं । 

पंच महाभूतों की तरह पंच तत्व ज्योतिषीय स्वरूप निकल कर प्रत्यक्ष तत्वों के १. गुण २. प्रभाव  ३. स्तिथि ४. आधार ५. स्वरूप    आता  हैं ।

जिसमें 

१. गुण के माध्यम से क्रियात्मक व्यवहार क्रिया व प्रतिक्रिया को देखा जाता हैं ।

२. प्रभाव के माध्यम से क्षमता, कार्य बल को प्रमुख तौर पर देखा जाता हैं ।

३. स्तिथि के माध्यम से स्थान और परिस्तिथि के प्रभाव को विशेष तौर पर देखा जाता हैं ।

४. आधार के माध्यम से भूगोलिक स्तिथि के प्रभाव को विशेष तौर पर देखा जाता हैं ।

५. स्वरूप के माध्यम से रंग रूप व स्वाभाविक-व्यवहार के प्रभाव को विशेष तौर पर देखा जाता हैं ।

उपरोक्त सभी सिद्धांत तांत्रिकों व ज्योतिषियों दोनों के द्वारा विशेष तौर पर प्राकृतिक रूप से प्रायोगिक स्तर पर किया जाता हैं । किन्तु , मानक आधार से प्रतीकात्मक स्तिथि पर दो भागो में स्थापित किया गया हैं ।

जिसे प्रथम गणित  भाग  द्वितीय फलित भाग  के माध्यम से उच्चारण व विश्लेषण किया जाता हैं ।

इसी तरह से ज्योतिष विज्ञान में हर एक ग्रह के अपने-अपने कारक तत्व होते हैं । जिसका आगामी लेख  ग्रह तत्व सिद्धांत पर विस्तार सें जानकारी उपलब्ध कराने की यथासंभव प्रयास रहेगा । किन्तु , ध्यान देने वाली बात ये है कि तत्व से निर्मित ये संपूर्ण सृष्टि ( प्रकृति )  तत्व के संयोग से समाविष्ट तथ्यों के आधार पर एक नए प्रभाव को दर्शाते हैं । जिससे  तत्वों के गुण ,  प्रभाव व स्तिथि  का स्पष्ट पता चलता हैं ।

विशेषः-  हर एक ज्योतिषीय ग्रह ब्रह्मांड के तत्वों का परिचायक के रुप में हैं , जिसे ज्योतिष विज्ञान के माध्यम से भली भाँति प्रकार से जाना जा सकता हैं ।

उदाहरणः-

जैसें की सुर्य अग्नि तत्व को प्रस्तुत करने वाले ग्रह के रुप में  जाने जाते हैं , और चन्द्रमा  जल तत्व अर्थात पानी को प्रस्तुत करते हैं । यदि जल की मात्रा अत्यधिक हो जाये तो अग्नि का निस्तेज प्रभाव की स्तिथि को निर्धारित करता हैं  और यदि अग्नि की मात्रा अत्यधिक हो तो जल का प्रभाव में निस्तेज अवस्था को प्रस्तुत करेगा ऐसी संभावना को व्यक्त करता हैं । किन्तु , उपरोक्त दोनो स्तिथि में जल के प्रभाव में गर्मी की अत्यधिकता की मात्रा अपने स्तिथि अनुसार रहेंगी जिससे परिणामिक स्वरुप को निर्धारित किया जाता हैं । इन सभी प्रकरण में विशेषतया स्तिथियों  व अवस्थाओं का विशेष महत्व होता हैं । जिसे आगामी ज्योतिषीय प्रकरण द्वारा समझने की कोशिश करेगे किन्तु , उस से पुर्व हमें ज्योतिष के नव ग्रहों के कारक तत्वों के बारे में विशेष तौर पर गहराई से जानने की आवश्यकता होगी ।

 1. आदित्य :-

आदित्य अर्थात सूर्य    रूप अग्नि का प्रकृति द्वारा  निश्चित किया एक तथ्य जिसके समान सम्पूर्ण ब्रह्मांड में  करोड़ों अनगिनत तारे सूर्य के रुप में विराजमान हैं ।  

अग्नि के रुप में महसूस होने वाली ताप ऊर्जा का एहसास कराता हैं । इसी ऊर्जा को प्राण के रूप में भी महसूस अपने भौतिक शरीर में किया जा सकता हैं जिसे आप और मैं प्राण ऊर्जा के रूप में मानते हैं । यही प्राण ऊर्जा आत्मा का परिचायक बनकर हमारे होने का प्रमाण बनता हैं । वास्तव में ये सम्पूर्ण जीव जगत में प्राण रूपी ऊर्जा के परिचायक के रूप में अवस्थित हैं ।  ये प्राण रूपी आत्मा का ही प्रभाव हैं जो जीव जगत में जीवन का एहसास कराता हैं । मेरे और आपके होने का प्रमाण भी यही हैं की मेरे और आपके अंदर प्राण रुप में कोई ऊर्जा विराजमान हैं ।

उपरोक्त प्रकरण से ये निश्चित होता है कि सूर्य के कारक तत्व  ज्योतिष विज्ञान में भी  अग्नि , ऊर्जा , आत्मा ,  प्राण ,  प्रभाव ,  व सत्ता अर्थात वर्चस्व रूपी प्रभाव को दर्शाता हैं , जो अधिकार प्रदान करके अधिकारी  बनाता हैं ।

ज्योतिष शास्त्र की दिव्यता पर तो बेहद ही असमंजस की स्तिथी तब बनती हुई प्रतीत होती हैं जब ये कहता हैं कि प्रभाव से उत्पन्न वर्चस्व रूपी सत्ता प्राकृतिक स्तर से संवैधानिक जो भी हो उन सभी के कारक तत्व सूर्य ही बनते हैं । और जहाँ तक इसका परीक्षण किया जाये तो ये कही न कही सत्य भी तो हैं । जब एक जीव के शरीर का शुक्राणु एक निस्तेज अंडाणु को निषेचित कर जीव का निर्माण रूपी प्रभाव से उत्पन्न जीव पिता रुपी सत्ता को निर्धारित करता हैं । वो पिता रुपी सत्ता सूर्य के कारक तत्व से निश्चित होता हैं ।

अन्य कारक तत्वों की व्याख्या समयाभाव के कारण यहाँ लिखना संभव नहीं हो सकता अतः आप सभी शिक्षा केंद्र पर शिक्षा प्राप्ति के दौरान इसे समझ सकते हैं । यहाँ पर समयाभाव के कारण सीधे - सीधे उपरोक्त ग्रहों के कारक तत्वों को व्यक्त किया जा रहा हैं ।

सूर्य :- आत्मा , शक्ति , तीक्ष्णता , दुर्ग ,   शुभता युक्त बल ,  गर्मी , प्रभाव , अग्नि ,  शिवजी की उपासना ,  धैर्य ,     राज- कर्मचारी ,  कड़वापन ,  पिता , आत्मबल , आत्मज्ञान , राजा , अध्यक्ष , महत्वकांक्षा , अधिकारी,  सिंहासन ,  स्वास्थ्य लाभ , राष्ट्राध्यक्ष , शासक , नेत्र , प्रकाश , राजा पर आश्रित , स्वामित्व , लोक व्यवहार , पूर्व दिशा का स्वामी , रक्त वर्ण , तांबा , धर्म , जैसे प्रभावशील तथ्य ज्योतिष विज्ञान में सूर्य के कारक तत्व के रूप में क्रियान्वित हैं  ऐसा सभी को जानना चाहिये ।   

सूर्य ज्योतिष में अन्य ग्रहों का राजा संवैधानिक धर्म के अनुसार चलने वाले दंडाधिकारी शहद के समान पिंगल वर्ण अल्प केशी भूरे नेत्र अल्प भाषी अग्नि स्वरूप पैतृक स्वभावगत अधिकार का पालन करने व करवाने वाले अधिकारी हैं ।

सोम अर्थात चन्द्र के कारक तत्व

सोम अर्थात चन्द्र  के कारक तत्व प्रकृति में !  मैंने पूर्व में ही कहा था कि सूर्य यदि अग्नि के कारक तत्व हैं , तो चन्द्र जल सूर्य यदि दिन के उजाले पक्ष प्रकाश के कारक तत्व हैं तो सोम दिन के रात्रि पक्ष अंधकार के कारक माने जाते हैं ।  दिन के दो पक्ष में सोम को रात्रि पक्ष के घटक के रूप में जाने जानें वाले कारक तत्व के रूप में जानना कोई अनुचित कार्य नहीं । क्योंकि सोम का उदित समय रात्रि प्रहर ही तो हैं । सोम का अपना कोई प्रकाश नहीं होता वों  प्रकाश का परिवर्तन करता हैं , अर्थात वो  प्रकाश को स्थानांतरित करता हैं । वैसे तो सोम भी प्रकाश के घटक के रूप में प्राकृतिक तौर पर अपने आप को प्रेक्षित करता हैं । किन्तु , वो केवल और केवल प्रकाश को परिवर्तित करने वाला एक घटक के रूप में ही अपने को लक्षित कर पाता हैं । सूर्य को पिता के कारक अर्थात अग्नि को प्राण तत्व के रूप में यदि आपने पूर्व में जाना हैं , तो चन्द्र को जीवन को आधार प्रदान करने वाले तत्व के रूप में प्रकृति ने जल के रूप में भंडारण  झरने,  कूप,  तलाव,  झील ,  नदी ,  समुद्र ,  के रूप में  इस धरा पर किया हैं ।  शायद इसी कारण महर्षियों ने जल की कल-कलता को ज्योतिषीय सोम की चंचलता से समझा हैं । जल की शीतलता के समान ही महर्षियों ने ज्योतिषीय सोम की शीतलता को समझा व जाना हैं । जिस प्रकार से जल का स्थानांतरण व परिवर्तन स्वतः होता हैं ठीक उसी प्रकार से सोम के परिवर्तन को महर्षियों ने समझा व जाना हैं । जल के एक बूंद को या फिर एक गिलास जल को किसी खुलें  जगह में छोड़ दिया जाए तो भी जिस प्रकार से जल अपने स्वभाव अनुसार फैलने का कार्य को करता हैं ठीक उसी प्रकार से सोम यदि अकेले हो तो वो भी कही न कही फैलने का ही कार्य करता हैं  ऐसा समझना चाहिए ।  उपरोक्त सभी प्रकरण से संबंधित क्रिया यदि जीव जगत के स्तर से देखा व समझा जाए तो सम्पूर्ण सृष्टि में हर एक जीव के अंदर एक मन ही ऐसी विषय वस्तु हैं जिसे दैवीय दृष्टि के स्तर से जोड़ कर के देखा व समझा जा सकता हैं । शायद इसी कारण से महर्षियों ने सोम को मन का कारक भी कहा । ये मन ही ऐसी विषय वस्तु हैं जिसे आंतरिक तौर पर भाव से संबंधित जुड़ाव ऐसा प्रतीत होता हैं जैसे की वो एक शरीर के ही दो जान हो । क्योंकि जब भी मन की स्थिति बिगड़ती  हैं , तब तब भाव बिगड़ती हैं और जब जब भाव बिगड़ता हैं तब तब मन की स्थिति बिगड़ती हुई प्रत्यक्ष होती हैं ।

ठीक इसी प्रकार से यदि वास्तविक सुख व दुःख की बात की जाए तो साधु संतों ने आंतरिक मन व भाव के बिगड़ने के कारण को ही प्रमुख तौर पर रखा हैं । यही मन व भाव आंतरिक इक्षा  के स्वरूप को भी दर्शाते हैं । कही न कही ये इक्षा ही  सुख व दुःख के कारण के रूप में भी अपने आप को दर्शाते हैं । जल की निर्मलता तो इतनी हैं की उसमें चाहे कोई  रंग मिला दो वो उसी रंग के स्वरूप को धारण कर लेता हैं और जिस प्रकार से जल अपने स्वरूप को रंग के अनुसार ढाल लेता हैं ठीक उसी प्रकार से ये मन व भाव रूपी तथ्य भी  परिस्थिति अनुसार अपने आप को  उसी रंग में ढाल लेता हैं अर्थात परिवर्तित कर लेता हैं । ठीक उसी प्रकार जब एक स्त्री भी मातृत्व स्वरूप में खुद को ढाल लेती हैं तो उसका स्वभाव भी ठीक उसी प्रकार से परिवर्तनशील स्वरूप को दर्शाता हैं । जो हर पल स्थिति अनुसार अपने आप को हर पल बदलता हो बात तो इतनी हैं कि मातृत्व ऐसा हो जो समझौता के लक्षण से ही लक्षित दिखती हैं ।

उपरोक्त प्रकरण के अनुसार ही सोम के कारक तत्व , स्वभाव , गुण , व्यवहार, क्रिया, प्रतिक्रिया,  को  भी ज्योतिषीय प्रकरण में लेने चाहिए ।

 मन , भाव , यात्रा , परिवर्तन , पुष्प , माता , कोमलता , हृदय , फेफड़ा , जल , समुद्र,  आंतरिक सुख , दुःख , मस्तिष्क , मनो-रोग , दवाई ,  जीवन , बहाव , गति , मातृत्व , निर्मलता , घुलनशीलता , रक्त का बहाव , यात्री , कूप, तलाब , निष्पक्षता ,  सफेदी ,  गोरापन ,  ब्रह्मण ,  कांच के समान पारदर्शिता , शीतलता , जलीय प्रदार्थ , जलीय धातु , जलीय रत्न , जलीय जीव , सौन्दर्य , चेहरे की चमक , आकर्षण , शीतल प्रदार्थ , दूध , दधि , मिश्री , पुण्य पाप , धर्म अधर्म , तीव्रता , शीघ्रगामी , चंचलता , बेचेनी , अस्थिरता , रात्रि रानी , स्त्री , स्वामिनी   इत्यादि जैसे तथ्य को सोम के कारक तत्व के रुप में जानने चाहिए ।

चन्द्र का रुप गौर वर्ण, गोल मुख, शीतलता से लक्षित, चंचलता से लक्षित , सुंदर , कोमल,  वाचाल , हल्के घुंघरले व सीधे श्याम केश , व श्याम रंग की आँखों की पुतली ,  प्रकाशित आभा-मंडल, आकर्षण युक्त युक्त नेत्र व  मुस्कान युक्त वाणी, सम्मोहन शक्ति, के साथ प्रकृति द्वारा सोम के आभा-मंडल को निर्धारित किया गया हैं ।

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