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कुंडली मिलान जरूरी क्यों भाग १

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कुंडली मिलान जरूरी क्यों भाग १

Bhagalpur astrology & research center

Astrologer :- mr.r.k.mishra      contact num :- 6202199681
a gov registered astrology center in Bhagalpur city
msme registration num :- udyam-br-07-0021025

विवाह से संबंधित प्रश्नों के जबाब :-

आधुनिक समयान्तर में ज्योतिषविज्ञ के पास आने वाली समस्याओ में से सबसे अत्यधिक और सामाजिक स्तर पर मौजूद समस्याओ से अत्यधिक प्रसिद्धि को प्राप्त समस्या हैं विवाहोपरांत पारिवारिक समस्याएं । वास्तव में यदि देखा जाए तो विवाहिक जीवन में होने वाली समस्याएं शुरुआत से  ही मौजूद हैं । यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे प्राचीन ऋषि महर्षियों द्वारा ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से वर व वधू के कुंडली मिलान की प्रक्रिया प्राचीन काल से नहीं होती । आधुनिक काल खंड में इस समस्याओ का विशेष प्रभाव पारिवारिक जीवन में देखने को मिलती हैं । क्योंकि व्यक्तियों के अंदर भावनात्मक स्थिरता की कमी हो गई हैं । क्योंकि मेरी अपनी अनुभूति हैं की व्यक्तियों के अंदर का क्रोध व अधीरता इसका प्रमुख कारण में से हैं । क्रोध व अधीरता व्यक्ति के अंदर भावनात्मक अस्थिरता का होना विशेष रूप से कारण बनता हैं । इसके लिए शस्त्रों में किसी भी प्रकार से लिंग भेद नहीं किया गया हैं ।  जहाँ तक देखा और समझा जाए तो स्त्री हो या पुरुष दोनों को बराबर का कारण ज्योतिष शस्त्रों में माना गया हैं । कभी किसी के गृह में स्त्री के कारण और कभी किसी के गृह में पुरुष के कारण गृह क्लेश होने की संभावना बनती हैं और कभी कभी किसी गृह के क्लेश में द्विज अर्थात दोनों (स्त्री-पुरुष ) कारक बनते हैं।

                                          सामान्यतः यदि आंतरिक स्तर पर देखा और समझा जाए तो भावनात्मक स्तर पर होने वाली अस्थिरता ही इसका प्रमुख कारक हैं । इस बारे में ज्योतिष शस्त्र का भी यही मत देखने को मिलता हैं । किन्तु मेरी अधोदृष्टि में मन के भाव ही प्रत्यक्ष कारक बन कर मेरी अंतःपटल पर स्थित होता दिख रहा हैं । द्विजों द्वारा यदि अपने मन के भाव पर स्थिरता लाया जाए तो पारिवारिक समस्याओ से एक दो हाथ करना आसान हो जाता हैं । द्विज एक दूसरे को सहयोग व समर्पण के भाव से ओतप्रोत होते दिखते हैं । किन्तु आधुनिक दौर की जीवनशैली इस तथ्य को और खंडित करने में लगी हुई हैं । व्यक्तिगत जीवन शैली इक्षाओं की चरम सीमा पर जाती हुई प्रतीत होती हैं । जिस कारण व्यक्तिगत तौर पर भावनात्मक अस्थिरता देखने को और अत्यधिक मात्रा में मिलती हैं ।


                                ज्योतिष शास्त्र में विवाह पूर्व वर व वधू का गुण मिलान किया जाता हैं ।  जिसे ज्योतिष शास्त्र में अष्टकूट मिलान कहा गया हैं । अष्टकूट का अर्थ यहाँ मूलतः आठ चरण अर्थात आठ स्तर पर होने वाली शोध से संबंधित हैं । जिसमे चंद्रमा से संबंधित प्रभाव को  आठ सूक्ष्म स्तर से विश्लेषित किया जाता हैं । इसके लिए ज्योतिष शास्त्र नक्षत्रों को व चंद्रमा की स्तिथि को राशिनुगत सूक्ष्म स्तर से देखता हैं । और साथ ही साथ राशि के नैसर्गिक गुण भाव व बनावट की भी सूक्ष्म स्तर से विश्लेषण करता हैं । जिसे अष्टकूट मिलान कहा जाता हैं ।

काशी के आदरणीय दैवज्ञ वाचस्पति वासुदेव गुप्त शर्मा जी द्वारा मिथिला राज्य के मैथिल-महाकवि  आदरणीय पंडित सीताराम झा जी शर्मा के चरण में सादर स-प्रेम समर्पित सम्पादन वृहज्ज्योतिषसार की कृति को किया हैं । मैथिल भाषी महाकवि सीताराम झा जी के प्रति होने वाला ये आभार कृति वृहज्ज्योतिषसार के माध्यम से जो सम्मान दिया गया हैं उससे मुझे मिथिला की भूमि में जन्म लेने पर स्वयं में गौरव प्राप्ति की अनुभूति हुई हैं । मुझे आज भी इस बात का गौरव हैं की मैं भारत की भूमि में जन्म लिया हूँ उसमे भी मिथिला की भूमि में उसमे भी मैथिल ब्राह्मण परिवार में एक ऐसे परिवार में जिसमे संतों की पराकाष्ठा देखने को मिलती हैं । मैं जहाँ आज रहता हूँ ये धरती माता गंगा के सानिध्य में महाभारत कालीन दानवीर अंगराज कर्ण की भूमि अंगिका नगरी हैं । मिथिला का पुत्र और अंगिका नगरी में गंगा के किनारे प्रवास मेरा सबसे बड़े गौरव में से एक हैं। जिस भूमि में माता सीता का जन्म खेत में हल चलाते वक्त हुआ । उस मिथिला राष्ट्र में जन्म होना अपने आप में मुझे गौरव की अनुभूति कराता हैं ।

                            अष्टकूट मिलान के प्रमुख मूल आधार विवेचना ।।

  • वर्ण     २. वश्य     ३. तारा     ४. योनि    ५. मैत्री    ६. गण    ७. भकूट   व   ८. नाड़ी

ये सभी अष्टाधार हैं ! वर व वधू के गुण व अवगुण मिलान का ! उपरोक्त ऊपर के  विवरण में जिस प्रकार जिस संख्या में लिखा गया हैं ठीक उसी प्रकार से उतनी ही संख्या का आधिकारी उपरोक्त कारक को समझना चाहिए । इन सभी संख्या का कुल योग ही ३६ गुण हैं ।

उदाहरणार्थ   :-  

                        १ + २ + ३ + ४ + ५ + ६ + ७ + ८ = ३६   

मूलतः १६ गुण मिलने तक भी विवाहिक संबंध त्याज्य होता हैं १७ गुण मिलने पर भी विवाह हो सकता हैं  किन्तु , अन्य आचार्यों के मतानुसार कम से कम १८ गुणों के मिलने की गुजारिश की गई हैं । १८ से कम गुण मिलना अच्छा नहीं माना जाता ।

वर्ण विश्लेषण :-

भारतीय समाज चार वर्णों में विभक्त हैं जिसमे से  प्रथम ब्राह्मण  द्वितीय क्षत्रिय  तृतीय  वैश्य  चतुर्थ शूद्र ।।  जन्म कुंडली की राशियों में चार मूल तत्व की राशि मानी जाती हैं उपरोक्त उदाहरण नीचे दिया जा रहा हैं ।।

तत्वअग्निपृथ्वीवायुजलअग्निपृथ्वीवायुजलअग्निपृथ्वीवायुजल
राशिमेषवृषभमिथुनकर्कसिंहकन्यातुलावृश्चिकधनुमकरकुम्भमीन
वर्णक्षत्रियवैश्यशूद्रब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रब्राह्मण

तत्व राशि का विशेष अधिकार :-

जल तत्व के राशि का यदि पुरुष हो अग्नि तत्व राशि की स्त्री के साथ विवाहिक संबंध उत्तम होता हैं ।

पृथ्वी तत्व राशि की स्त्री के साथ विवाहिक संबंध भी अच्छा होता हैं ।

वायु तत्व राशि की स्त्री के साथ विवाहिक संबंध ठीक ठाक रहता हैं ।

जल तत्व राशि की स्त्री के साथ संबंध सर्वोत्तम होता हैं ।

किन्तु वही स्त्री यदि जल तत्व की राशि से संबंधित हो तो जातिका का विवाहिक संबंध सिर्फ और सिर्फ जल तत्व की राशि के पुरुष से ही अच्छा होता हैं ।

वायु तत्व की स्त्री का अन्य सभी तत्व राशि के पुरुष के साथ विवाहिक संबंध सर्वोत्तम ही होता हैं ।

अग्नि तत्व राशि की स्त्री का जल तत्व के पुरुष व अग्नि तत्व के पुरुष की राशि के साथ ही संबंध सर्वोत्तम होता हैं अन्य पृथ्वी तत्व व वायु तत्व राशि के पुरुष के साथ विवाहिक संबंध अच्छा नहीं रहता ।।

पृथ्वी तत्व राशि की यदि स्त्री हो तो पृथ्वी तत्व की राशि अग्नि तत्व की राशि व जल तत्व की राशि के पुरुष से विवाहिक संबंध सर्वोत्तम ही होता हैं ।

पुरुष के लिए उपरोक्त ऊपर दर्शाये गए स्त्री विवरणों के बिल्कुल उलट तत्व राशि की स्त्री ही सर्वोत्तम होती हैं । अन्य रूप से पुरुष यदि वायु तत्व की राशि का हो तो उसे सिर्फ और सिर्फ वायु तत्व की राशि से संबंधित कन्या से ही विवाह करनी चाहिए  अन्य किसी और तत्व के कन्या को वरण करने योग्य वायु तत्व का पुरुष नहीं होता ।

पृथ्वी तत्व के राशि का पुरुष अग्नि तत्व व जल तत्व की राशि के कन्या को वरण करने का आधिकारी नहीं होता ।

अग्नि तत्व राशि के पुरुष जल तत्व राशि के स्त्री को वरण करने का अधिकारी नहीं  होता ।

वश्य विशेष :-

वश्य का अभिप्राय यहाँ पर राशि के स्वरूप का व्याख्यान हैं , राशि का रूप रंग स्वभाव को यहाँ पर वश्य के माध्यम से देखा जाता हैं । मेष वृषभ धनु का उत्तरार्द्ध , सिंह और मकर का पूर्वार्ध ये चतुष्पद हैं ,  मिथुन तुला कुम्भ कन्या और धनु का पूर्वार्ध द्विपद हैं ,  मकर का उतरार्द्ध और मीन का जलचर  तथा  कर्क और वृश्चिक ये कीट हैं ।

वश्य के माध्यम से चंद्रमा का संबंध जिस राशि से जिस स्तिथि वश में होता हैं उसके रूप रंग आकार प्रकार के मुताबिक उसका अवलोकन किया जाता हैं ।

तारा विशेष :-

जैसा की प्रयुक्त शब्द तारा हैं तो ये सहज ही समझा जा सकता हैं की नक्षत्रों का संबंध चंद्रमा के साथ कैसा और किस स्तर का हैं । इसके परिणाम स्वरूप गणना हेतु कन्या के नक्षत्र से वर के नक्षत्र पर्यंत और वर के नक्षत्र से कन्या के नक्षत्र तक गिने उसमे ९ का भाग देने से ३, ५, ७  शेष रहे तो अशुभ हैं । तथा अन्य १, २, ४, ६, ८, ९ शेष रहे तो शुभ माना जाता हैं ।

योनि विशेष :-

योनि का तात्पर्य यहाँ पर श्रेणी से लिया गया हैं जिसे आंगलिक भाष्य में (category) से परिलक्षित किया गया हैं । योनि मिलान का तात्पर्य व्यक्ति के उस श्रेणी से हैं जिसके अनुरूप व्यक्तिगत स्वभाव का पता चलता हैं । योनि के प्रभाव को दृश्यमान हेतु पशुओ के रूप रंग को आधार बनाया गया हैं । प्रयुक्त तथ्यात्मक पहल अनुसार   गौ और व्याघ्र का ,  अश्व और महिष का ,   श्वान और मृग का ,  सिंह और गज का ,  सर्प और नकुल का , वानर और मेष का , परस्पर परम  वैर हैं । इसीलिए विवाह में इसका त्याग करना श्रेष्ठ हैं ।  

योनि मेलापक में वर व कन्या की योनि एक्य हो तो शुभ ,  मित्र योनि से मध्यम ,  और यदि शत्रु योनि से हो तो अशुभ हैं । योनि चक्र से   कन्या व वर का ,   मालिक और नौकर का ,   पशु और उसके पालक का शुभाशुभ फल प्रमुख तौर पर विचारा जाता हैं ।

ग्रह मैत्री विशेष :-

मूलतः चंद्रमा वर व वधू के जिस राशि में विराजमान हो उस राशि के स्वामियों के मध्य का संबंध भावनात्मक तौर पर विशेष प्रभाव रखता हैं । उदाहरण स्वरूप देखा जाए तो सूर्य और शनि आपस में प्रबल शत्रु की भाँति व्यवहार करते हैं । क्योंकि इन दोनों का गुण और स्वभाव एक दूसरे के विमुख हैं यदि वर व कन्या के कुंडली में चंद्रमा सिंह और मकर राशि में हुआ तो द्विज के मध्य स्वभावगत अपने अपने स्थान से अहंकार स्वरूप को प्रदर्शित करेगा । इस संदर्भ में मेरा मानना हैं की लग्न व लग्न अधिपति के स्वरूप का भी विशेष तौर पर अवलोकन कर लेना उचित होगा। क्योंकि मेरी दृष्टि में आत्मा का प्रभाव भी विशेष महत्व रखता हैं ।  

ग्रह मैत्री विचार में यदि कन्या और वर के राशि स्वामी एक हो या मित्र हो तो ५ गुण , एक मित्र और दूसरा सम हो तो ४ गुण , दोनों सम  हो तो ३ गुण , एक मित्र और दूसरा शत्रु हो तो १ गुण , एक सम  और दूसरा शत्रु हो तो १/२ गुण और यदि दोनों शत्रु हो तो ० गुण ,  समझना । तथा यदि राशि अशुभ हो तो सम-मित्रादि में गुण की संख्या १ घटाकर समझना चाहिए ।

गण विशेष :-

प्रमुख तौर पर नक्षत्र आधारित चंद्रमा जिससे संबंध स्थापित करता हैं उस नक्षत्र के और उस नक्षत्र के स्वामी राशि का प्रभाव अनुरूप महर्षियों ने गुण व स्वभाव का अति-सूक्ष्म स्तर पर अवलोकन किया हैं जिसके फलस्वरूप गण को परिभासित किया गया हैं । मूलतः गण तीन माने गए हैं । १. देव  ,   २. मनुष्य ,   ३. राक्षस  । ।

उदाहरण स्वरूप यदि मकर कुम्भ राशि का चंद्रमा यदि धनिष्ठा नक्षत्र से संबंधित हो तो राक्षस गण का व्यक्ति जातक कहलाता हैं । वैसे तो गण का विश्लेषण काफी रोचक विषय हैं जिसके लिए एक अध्याय की विशेष आवस्यकता विश्लेषणार्थ हेतु होंगी । किन्तु , समयाभाव के कारण नहीं कर रहा हूँ । किन्तु , वर व कन्या का यदि एक गण हो तो एक दूसरे में प्रगाढ़ प्रीति देखने हो मिलती हैं किन्तु , यदि किसी तरह से देव और मानुष्य का संबंध हो तो माध्यम प्रीति , और देव व राक्षस गण के मध्य परस्पर कलह होता हैं ।

विशेष तौर पर :- राक्षस गण वाली कन्या और मनुष्य गण का वर , तथा देव और राक्षस वाले वर  व कन्या में विवाह संबंध शुभ नहीं अर्थात विवाह के पश्चात दाम्पत्य जीवन सुखमय नहीं रह सकता ऐसा आचार्यों का मत हैं ।

भकुट विशेष :-

चंद्र आधारित स्थान आधिपत्य अनुसार भकुट की गणना की जाती हैं । जिससे भावनात्मक सौहार्द का विश्लेषण किया जाता हैं ।  इसमे से परस्पर यदि वर व वधू के चंद्र स्थान आधिपत्य राशि से दूसरे की चंद्र आधिपत्य राशि एक दूसरे से पंचम , नवां , षष्ठम,  अष्टम ,  द्वादश व द्वितीय हो तो भकुट दोष हो जाता हैं । मूलतः ऐसे में भावनात्मक प्रेम की कमी हो जाती हैं । षष्ठम अष्टम का संबंध मृत्यु योग , नवां पंचम से संतान हानि का योग व द्वितीय द्वादश से दरिद्रता का योग हो जाता हैं । यदि इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार का योग हो तो द्विज का विवाहिक जीवन उत्तम होता हैं ।

नाड़ी विशेष :-

अष्टकूट मिलान में सबसे अत्यधिक महत्वपूर्ण आधुनिक काल खंड में यदि किसी को माना जाता हैं तो वो नाड़ी मिलान हैं । सबसे अत्यधिक अंकों को धारण करने के कारण इसका महत्व अंकों के हिसाब से भी बढ़त लिए हुए हैं । मेरी अपनी अनुभूति अनुसार वास्तव में नाड़ी के प्रभाव को समझने के लिए कुछ जन्तु शास्त्र का अध्ययन और नाड़ी संहिता का अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण हैं । किन्तु ,  ज्योतिषीय मापदंड के अनुसार चंद्रमा को रोग कारक ग्रह भी माना जाता हैं । अष्टकूट मिलान के दौरान ज्योतिष-विज्ञों द्वारा इसी रोग संबंधित मापदंड का सूक्ष्म विश्लेषण चंद्रमा के माध्यम से नाड़ी मिलान से किया जाता हैं । ज्योतिष विज्ञों द्वारा आदि नाड़ी ,                 मध्य नाड़ी ,  व   अन्त्य नाड़ी  की व्याख्या की जाती हैं जो परस्पर तंत्र शास्त्र में  ईडा ,   पिंगला ,  व  सुषुम्ना  सिद्धांत से  परिलक्षित सा प्रतीत होता हैं । तत्वों में प्रत्यक्ष तत्व तीन ही भौतिक स्वरूप में दिखते हैं जो जीवन प्रदत्त तत्व हैं और वो तीन तत्व  वायु   अग्नि   व   जल   हैं । आप पंच तत्व के हिसाब से आकाश और भूमि को भी संलग्न करना चाहेंगे किन्तु , आकाश ब्रह्म स्वरूप हैं भौतिक स्वरूप में उसका कोई अस्तित्व नहीं किन्तु , भूमि भौतिक होते हुए भी किसी काम की नहीं हैं क्योंकि भूमि की मिट्टी को भी प्राण जल के विलय से ही मिलता हैं । जब जल का समन्वय मिट्टी से होता हैं तो मिट्टी किसी ढाँचे के हिसाब से त्यार होती हैं । अर्थात जीवन प्रदत्त तत्व तीन ही हैं ।

ज्योतिष में चंद्रमा हृदय का फेफरा का कारक है जिसका प्रमुख तौर पर कार्यशील तीन चैम्बर    हैं !  जिसके तीनों नाड़ी परस्पर वायु तत्व , अग्नि तत्व , व  जल तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

नीचे के उदाहरण चार्ट द्वारा समझें ।।

ज्योतिष में चंद्रमा स्वभाव अर्थात स्वयं के भाव का कारक भी हैं ! अष्टकूट मिलान वर व वधू के भावनात्मक पहल का सूक्ष्म विश्लेषण हैं । जिसके परिणाम फलस्वरूप :-

विशेष :- वायु तत्व और जल तत्व रोग तो अग्नि मृत्यु देता हैं जिसके परिहार हेतु अलग अलग नाडी होना आवश्यक हैं ।

यदि आदि नाड़ी पुरुष का विवाह आदि नाड़ी की स्त्री से हो तो दोनों रोग को प्राप्त करे

  मध्य नाड़ी पुरुष का विवाह मध्य नाड़ी स्त्री से हो तो मृत्यु को प्राप्त करें ।।

अन्त्य नाड़ी का प्रभाव आदि नाड़ी के समान ही समझें ।।

अर्थात विवाह हेतु कन्या व वर की नाड़ी अलग अलग होनी चाहिए ।।

विशेष रूप से इसका परिहार भी होता हैं जिसका विवरण आगे के लेख में दूँगा ।।

यहाँ विशेष तौर पर विश्लेषण नहीं किया गया हैं विश्लेषण के कार्य संदर्भ में एक छोटी सी पुस्तक ही लिखी चली जाएगी । समयाभाव के कारण पूर्ण लेख लिख पाना थोड़ा कठिन लगा जिस कारणवश संछिप्त विवरण रख रहा हूँ । किसी भी प्रकार की त्रुटि हेतु आप सभी विद्वतजनों के समक्ष क्षमा प्रार्थी हूँ  ।।  जय गुरुदेव ॐ नमों भगवते रुद्राय आनंदेश्वर नाथाय नमो नमः ।।

ज्योतिषविज्ञ :- MR. R.K.MISHRA     संपर्क सूत्र :- 06202199681

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