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आत्मा क्या हैं ? भाग १

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आत्मा क्या हैं ? भाग १

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आत्मा क्या हैं ?

व्याकरण की दृष्टि से आत्मा  ( आत्म + आ ) की संधि से प्रयुक्त होने वाले शब्द हैं जिसके माद्यम से इस बात की पुष्टि होती हैं ।।

आत्म का मूल संबंध संस्कृत शब्दावली से प्रायोजित हैं । जिसका अर्थ स्वयं अर्थात खुद से संबंधित हैं ।

आ का अर्थ भी मूलतः आने से संबंधित हैं ।

उपरोक्त अर्थ अनुसार यदि देखा जाए तो आत्मा का अर्थ उपरोक्त संधि के समन्वय से खुद के आने से होता हैं । खुद के आने से आखिर क्या प्रयोजन हैं इस तथ्य को समझने की चेष्टा करते हैं । इससे पहले कुछ और अन्य स्तिथि के अनुसार आत्मा को समझने की चेष्टा करते हैं जिससे आत्मा के मूल स्वरूप को समझने में  हमे सहायता मिलेंगी ।

  • तंत्र मार्ग के अनुसार व्यक्तिगत चेतना आत्मा के स्वरूप को निर्धारित करती हैं ।
  • तत्व सिद्धांत के अनुसार तत्व के स्वरूप निर्धारण में मूल आधार कारक आत्मा का परिचायक हैं ।
  • विशेष तौर पर ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से जानने की कोशिश करते हैं आत्मा क्या हैं ! तो ग्रह रूपी कारक सूर्य आत्मा के कारक हैं इसका पता चलता हैं ।  सूर्य मूल ऊर्जा के कारक हैं जिससे जीवन का अस्तित्व निर्धारित होता हैं ।
  • ज्योतिष शास्त्र के इस सिद्धांत के माध्यम से इस बात की पुष्टि होती हैं की जड़त्व आधारित तथ्य में मूल ऊर्जा के कारक होने के फलस्वरूप जीवन रूपी ऊर्जा का बोध कराने वाले तात्विक तथ्य आत्मा का परिचायक बनता हैं ।

मेरी दृष्टिकोण से आत्मा का अर्थ उस मूल कारक से संबंधित हैं जिसके होने से किसी भी तथ्य का अस्तित्व निर्धारित होता हैं । ऐसे तत्व जो किसी भी तथ्य को अस्तित्व व (अस्तित्व का अनुभव ) प्रदान करते हो आत्मा का परिचायक होगा ।

जैसे आधुनिक विज्ञानिक दृष्टिकोण से परमाणु परिलक्षित प्रकृति के भौतिक तथ्य जिसके बिना किसी भी जड़ स्वरूप का निर्धारण करना संभव नहीं होगा । परमाणु का अस्तित्व निर्धारित करने वाले तथ्य इलेक्ट्रान प्रोट्रॉन व  न्यूट्रॉन जैसे परम अणु जो परमाणु के अस्तित्व को निर्धारित करते हैं । और परमाणु से संबंधित तत्व अणु को और अणु से संबंधित तथ्य प्रकृति में मौजूद अन्य तथ्य का मूल कारक बनते हैं । ये सभी प्राकृतिक तथ्य के मूल घटक किसी भी तथ्य के स्वरूप हेतु अति अनिवार्य तत्व हैं जिससे भौतिक जगत में किसी तथ्य के दृश्य अस्तित्व का निर्धारण करती हैं । इसके सूक्ष्म स्तर पर जैसे जैसे विश्लेषण होता जाता हैं वैसे वैसे दृश्य अस्तित्व का लोप होता जाता हैं । जैसे जैसे चरणबद्ध ऐसे तत्व अस्तित्व में आते जाते है और दृश्यगामी अस्तित्व का वैसे वैसे पतन होता जाता हैं अर्थात अदृश्य होते जाता हैं ।

प्रथम सिद्धांत के अनुसार खुद के आने से संबंधित हैं ।  माना की मैं एक शरीर हूँ तो मेरी सर्वप्रथम जिज्ञासा ये होंगी की मेरे इस शरीर के संरचना का प्राकृतिक मूल आधार क्या हैं ? उस प्राकृतिक मूल आधार के स्वरूप हेतु जिस परम तत्व की प्राप्ति होती हैं वो परमाणु के कण प्रयुक्त होते हैं । परमाणु के कण जिस इलेक्ट्रान प्रोट्रॉन व  न्यूट्रॉन जैसे परम तत्व के समन्वयता से अस्तित्व निर्धारित करते हैं ।  उसे अपने मूल अस्तित्व को धारण करने हेतु भी किसी विशेष जीवन दायनी अणुओ की जरूरत होंगी । सत्य तो ये हैं की उस विशेष ऊर्जावान मूल स्वरूपित तथ्यों के अस्तित्व को निर्धारित करने हेतु जिस ऊर्जात्मक तथ्य की पुष्टि होती हैं । इसी विशेष अणु का प्रत्यक्ष परिचायक तथ्य विष्णु स्वरूप में इस प्रकृति में दृष्टिगोचर हैं । यही वो विशेष अणु विष्णु हैं जिसके होने से भौतिक स्तर से सृष्टि की संरचना कायम रहती हैं । इसी विष्णु के होने से मेरे भौतिक शरीर का अस्तित्व निर्धारित हैं । 

तंत्र विज्ञान के अनुसार शरीर में मौजूद चेतना जो जीवित होने का प्रमाण बनता हैं और स्वयं में खुद के होने का एहसास हर एक क्षण जीव को कराता हैं । वो चेतना आत्मा का रूप निर्धारित करता हैं । संवेदन और स्पंदन से युक्त चेतना आत्मा के रूप में हर एक जीव के अंदर मौजूद हैं ।  सामान्यतः विज्ञानिक दृष्टि से इसी संवेदन और स्पंदन से परिलक्षित चेतना हर एक जीव को अपने होने का अर्थात प्रकृति में स्वयं के मौजूदगी का एहसास कराता हैं ।  

कुछ अन्य तर्क के अनुरूप आत्मा का स्वरूप किसी अन्य स्तिथि को दर्शाता हैं जो कही न कही कुतर्क का कारण बनता हैं । मेरे अनुभव के आधार पर इस बात की सच्चाई हैं की आत्मा जो जड़ अर्थात शरीर का चेतना के माध्यम से जीवंत होने का जो प्रमाण हैं ! वो सृष्टि के हर एक जीव के अंदर प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में स्थित हैं । क्योंकि चेतना के लोप हो जाने से मृत्यु की पुष्टि होती हैं । क्योंकि यही चेतना जड़ रूपी तथ्य में विराजमान होकर भौतिक शरीर में होने वाले स्पंदन का कारक बनता हैं । इस स्पंदन के माध्यम से शरीर रूपी यंत्र में प्रत्यक्ष होने का प्रमाण मिलता  हैं । भौतिक शरीर में होने वाले हर एक क्रिया का संचालन-कर्ता के रूप में इसे समझा जा सकता हैं । जीव के मस्तिष्क में इसका निवास स्थान माना गया हैं जिसका पूर्ण प्रभाव जीव के हृदय रूपी तथ्य से परिलक्षित हैं ।

ये सत्य हैं की गर्भ में जन्म के समय हर एक जीव का हृदय के निर्माण के पश्चात मस्तिष्क का निर्माण होता हैं ! जिसके पश्चात कई व्यक्तियो द्वारा इस बात को लेकर विवाद किया जा सकता हैं की ,  जब सर्वप्रथम हृदय की रचना उस परमात्मा द्वारा किया जाता हैं तो फिर चेतना का स्थान हृदय में होना चाहिए । क्योंकि चेतना के पूर्णतया लोप हो जाने से हृदय की गतिविधि में अवरोध उत्पन्न होता हैं । तो स्पष्ट तौर पर उन्हे कह दूँ की निर्माण के आवस्था में हर एक जीव के नाड़ी नाल के माध्यम से उस मातृ-रूपी जीव के चेतना के ऊर्जा का उपयोग उस निर्माण कर्ता परमात्मा के द्वारा किया जाता हैं । और इसका क्रम तब तक चलता रहता हैं जबतक वो जीव इस सृष्टि में माँ के गर्भ का त्याग नहीं कर देता । गर्भ के त्याग के पश्चात नवजात शिशु स्वयं के चेतना से पूर्णतया जुड़ जाता हैं । स्वाभाविक तौर पर शिशु में चेतना का आगमन गर्भ में हो जाता हैं किन्तु , वो चेतना माता के चेतना से जुड़ा हुआ होता हैं ।

उपरोक्त सभी तथ्यों के अनुरूप से इस बात की पुष्टि होती हुई प्रतीत होती हैं की जीव के शरीर में मौजूद चेतना और भौतिक शरीर के मूल कण ही आत्म-कारक आत्मा हैं । किन्तु , प्राकृतिक स्तर से देखने पर आत्मा का अस्तित्व चेतना नहीं हो सकती क्योंकि आत्मा का अर्थ ही मैं कार से संबंधित हैं । मेरा आना ही आत्मिक प्रसंग को निर्धारित करता हैं । श्रीमद्भागवद् गीता के अनुरूप आत्मा का न जन्म होता हैं और न ही मृत्यु तो आप किसकी बात आत्मा के रूप में करते हैं । माँ के गर्भ में रहने वाले शिशु का निर्माण भी कई चरण आधारित प्रक्रिया हैं । और गर्भ में निर्माण संबंधित हर एक स्तर में चेतना का विकास स्पंदन के क्रिया के माध्यम से चरणबद्ध तरीके से संबंधित हैं । शिशु निर्माण कालीन अवस्था में चेतना का मुख्य श्रोत्र माँ की चेतना हैं ।

जिस प्रकार शरीर रूपी यंत्र के हर एक अंग का एक दूसरे के साथ बनाए हुए सामंजस्य स्थित भौतिक स्वरूप जीव के  भौतिक परिचय का कारण बनता हैं । ठीक उसी प्रकार जीव के शरीर के अंग में होने वाले स्पंदन की क्रिया से निर्मित तथ्य चेतना रूपी अभौतिक शरीर का निर्माण करता हैं । चेतना रूपी अभौतिक शरीर आत्मयकार का परिचायक बनता हैं । आत्मा किसी एक तथ्य आधारित विषय वस्तु नहीं हैं इसमे भौतिकता और अभौतिकता दोनों स्तर का समागम हैं । जिसे योग और ध्यान के माध्यम से स्वयं में महसूस किया जा सकता हैं । इस मैं कार रूपी तथ्य का न तो कोई अस्तित्व होता हैं और न हो सकता हैं । शायद इसी कारण से गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने कहा की आत्मा का न जन्म होता हैं और न ही मृत्यु । आत्मा का सम्पूर्ण विकास क्रमबद्ध तरीके से चरणागत स्तर से निरंतर होता हैं ये स्वतः एक क्षण में प्रयुक्त या व्यक्त नहीं हो सकता । स्तिथि अनुसार इसके स्वरूप में निरंतर परिवर्तन होता रहता हैं जो स्तिथिजन्य आधारित तथ्य हैं ।

आत्मा की स्तिथि शून्यता से हैं और परमात्मा की स्थिति महाशून्यता से हैं । इसी कारण से मैं होकर भी नहीं हूँ और वो परमात्मा होकर भी दृश्य नहीं हैं । मैं अज्ञात अवस्था में उस अज्ञात रूपी तथ्य ईश्वर का प्रतिमूर्त रूप हूँ जो एक भ्रम की स्तिथि से अंतर्मन में प्रत्येक क्षण स्थित हैं । इसी शून्य में भौतिक संसार को चलाने का सामर्थ्य हैं । और जिस प्रकार इस शून्य रूपी आत्मा में भौतिक संसार को चलाने का सामर्थ्य हैं ! ठीक उसी प्रकार उस महाशून्य रूपी महाशक्ति का सामर्थ्य सम्पूर्ण ब्रह्मांड के संचालन से हैं । क्रिया योग द्वारा इसे निश्चित किया जा सकता हैं किन्तु , इसे समझने हेतु उस परम आदर्श महाशून्य की स्तिथि के साथ सामंजस्य स्थापित करना अनिवार्य हैं ।।                                       

ज्योतिषविज्ञ :- आर के मिश्र ।।

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