ANALYSIS OF INTERNAL BRAIN IN ASTROLOGY
MASTER KEY OF ASTROLOGY
BHAGALPUR ASTROLOGY & RESERCH CENTER MASTER KEY OF ASTROLOGY
विशेष :-
उपरोक्त सूत्र भागलपुर ज्योतिष और शोध केंद्र की निजी संपत्ति हैं उपरोक्त सूत्र से यदि किसी प्रकार की समानता दिखती हैं तो वो संयोग मात्र माना जाएगा । ज्योतिषविज्ञ आर के मिश्र जी द्वारा सूत्र निर्धारित किया गया हैं ।
कुंडली में वैसे तो चतुर्थ भाव हृदय का महर्षि पाराशर व ज्योतिषीय विद्या के जनक महर्षि भृगु के द्वारा माना गया हैं । अन्य सभी ज्योतिष विज्ञों द्वारा भी यही माना गया हैं किन्तु , मैंने अनुभूति की हैं की ये हमारे गुप्त मस्तिष्क का भी भाव हैं । पराशरी सिद्धांत अनुसार चतुर्थ भाव मोक्ष त्रिकोण का भी मूल हैं इसी मोक्ष त्रिकोण का ज्ञान अष्टम भाव और मोक्ष त्रिकोण के धर्म भाव द्वादश भाव हैं ।
मैंने पूर्व के लेख के माध्यम से इस बात की पुष्टि की हैं की ज्योतिष विज्ञान में भौतिक जगत के जितने भी घटक हैं वे सभी प्रथम भाव से षष्ठम भाव तक के घटक हैं । अन्य सप्तम भाव से द्वादश भाव तक के घटक अज्ञात व अदृश्य सत्ता से अभौतिक स्तर के घटक हैं । उसमे भी यदि देखा जाए तो अष्टम भाव के घटक की व्याख्या तो अदृश्य सत्ता के रूप में ही की जाती हैं । जीतने भी प्रकार के गुप्त संसाधन हैं उनकी व्याख्या अष्टम भाव से ही की जाती हैं । इसी अष्टम का धर्म चतुर्थ हैं । वास्तव में चतुर्थ भाव ज्योतिषीय मतानुसार जगत जननी जगदंबा का मातृत्व स्वरूप का स्थान हैं जिससे काल के मातृ स्वरूप में जगत जननी माता कालिका का निवास स्थल हैं ।
मूलतः मस्तिष्क के दो प्रमुख घटक हैं एक सोच व दूसरा भाव ये दोनों मस्तिष्क के दो प्रमुख संचालक घटक हैं । जिसके माध्यम से सम्पूर्ण सृष्टि के जीवों का संचालन स्वतः होता हैं । व्यक्तियो की सबसे बड़ी विडंबना ही हैं की सिर्फ सोचने और समझने की शक्ति को जितनी प्राथमिकता से मस्तिष्क के घटक के रूप में देखते व समझते हैं उतनी प्राथमिकता से भाव को नहीं देखते क्योंकि , भाव आंतरिक स्तर की सत्ता का परिचायक हैं । जबकि सोच प्रत्यक्ष हैं और भाव जागृत होकर भी प्रत्यक्ष नहीं होते । सोच में बदलाव हैं क्योंकि मिथ्या से इसका परिचय हैं किन्तु भाव का सत्य से परिचय होने के कारण भाव के महत्व को हमेशा स्वभावगत गिराया गया हैं ।
पराशरी ज्योतिष के माध्यम से भी चतुर्थ भाव को आंतरिक मस्तिष्क की उपाधि मिली हुई हैं । किन्तु स्पष्ट रूप से स्वीकार पाराशरहोराशास्त्रम द्वारा नहीं किया गया हैं किन्तु पराशरहोराशास्त्रम में अष्टम भाव को व अन्य सभी ज्योतिषीय विश्लेषणात्मक कृति में गूढ ज्ञान व विज्ञान का सिद्ध रूप में मौजूद हैं ।
सूत्र १. के अनुसार ज्ञान व विज्ञान के मूल घटक का भाव पंचम भाव को माना गया हैं पंचम की सिद्धि से कोई भी जातक ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में सिद्धहस्त हो सकता हैं । स्थानीय दृष्टिकोण से अष्टम भाव गूढ व पराविज्ञान का भी भाव हैं । अर्थात इस सिद्धांतानुसार चतुर्थ भाव का स्थान मस्तिष्क के स्थान का हो जाता हैं ।
सूत्र २. के अनुसार तंत्र सिद्धांत में हृदय के भाव का विशेष महत्व हैं अष्टम भाव उसी हृदय के भाव रूपी मस्तिष्क का ज्ञान भी व्यक्त करता हैं । उपरोक्त सिद्धांत १. में दर्शाये गए पराविज्ञान रूपी घटक का प्रत्यक्ष स्वरूप भी अष्टम भाव निर्धारित करता हैं । जीतने भी प्रख्यात ज्योतिष व तांत्रिक हुए उनके अष्टम भाव से प्राप्य ज्ञान सिद्धि ही सबसे बड़े कारक के रूप में ज्ञात हैं । ज्योतिष व तंत्र गूढ रहस्य की विषयवस्तु हैं ये कभी प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात नहीं हो सकते इसके सिद्धांत भले ही ज्ञात हो किन्तु मूल स्वरूप आज भी अज्ञात रूप में ही हैं ।
लग्न का संचालन क्रिया पंचम भाव से ही संभव हैं लग्न मस्तिष्क रूपी घटक हैं तो वही पंचम ज्ञान व मस्तिष्क के संचालन क्रिया का घटक बनता हैं । मेरी आंतरिक विश्लेषणात्मक अनुभूति अनुसार सृष्टि के हर एक जीव को प्रकृति नें मस्तिष्क को संचालन हेतु ज्ञानबल रूपी संचालक प्रदान किया हैं । और शरीर रूपी यथार्थ को संचालित करने हेतु संतान रूपी स्वयंभू शरीर ।। अर्थात यदि पंचम भाव को संचालक के रूप में यदि व्यक्त किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होंगी । इसी कारण जीतने भी ज्योतिष व तांत्रिक को मैंने देखा और पाया हैं ! उस गूढ पराविज्ञानिक रहस्यों से अपने संतान की ही भाँति अत्यधिक प्रेम करते हैं । जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र के विषय में निरंतर चिंतनशील भावनात्मक स्तर से रहते हैं ठीक उसी प्रकार एक ज्योतिष और तांत्रिक सदैव चिंतनशील अपने गूढ रहस्यों के प्रति संतान के प्रतिरूप भाँति रहते / करते हैं । ध्येय वाली विशेष बात बता रहा हूँ । हर एक व्यक्ति के तीन पिता होते हैं । जिसमे प्रत्यक्ष दो होते हैं । एक मातृ सहयोग से जन्म देने वाला दूसरा जातक रूपी घटक का संचालन करने वाला गुरु । मातृ सहयोग से शरीर की प्राप्ति होती हैं और ज्ञान रूपी सहयोग से व्यक्तित्व।। किसी भी व्यक्ति का व्यक्तित्व ही उसकी पहचान बनती हैं रूप रंग शरीर ही बनती हैं । इसी का मूर्त रूप लग्न व पंचम का ज्ञान हैं । तीसरा पिता देवताओ का होना हैं जो गुरुवत स्वरूप में गुप्त रूप से विद्यमान हैं । इस तीसरे पिता का अस्तित्व लग्न से नहीं हैं इस तीसरे पिता का अस्तित्व गुरुवत स्वरूप में चतुर्थ और अष्टम हैं । वाणी ज्ञान हैं जिसके माध्यम भौतिक स्तर पर व्याप्त गुरु हैं । शायद इसी लिए उस तीसरे अभौतिक रूप में सर्वत्र विद्यमान वो पिता हैं जिनके माध्यम से ही सम्पूर्ण सृष्टि की आदि व अंत निश्चित होता हैं ।
विशेष रूप से इसी उपरोक्त सिद्धांत को चतुर्थ भाव और अष्टम भाव व द्वादश भाव पर यदि स्थापित कर दिया जाए तो उपरोक्त विवरण की व्याख्या स्वतः हो जाती हैं ।
मेरी तुक्ष दृष्टि गोचर से शायद इसी उपरोक्त सिद्धांत का मूल अर्थ लेकर ये वाक्य गुरु के प्रति सहानुभूति के अर्थ को व्यक्त करते हुए कबीर जी द्वारा शायद गढ़ी गई होंगी ।
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागो पाय । वलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय कबीरा ।।
उपरोक्त सहानुभूति शब्द के अर्थ को इस प्रकार लेना चाहिए !
सह + अनुभूति = सह का मूल अर्थ हैं साथ अर्थात सहयोग + अनुभूति का अर्थ आंतरिक हृदयात्मक भाव अर्थात यहाँ पर सहानुभूति के अर्थ को आंतरिक हृदयात्मक भाव के सहयोग से लेना उचित होगा जिसे सहानुभूति से परिलक्षित किया गया हैं ।
सूत्र ३ के अनुसार मनो-रोगियों के इलाज हेतु हृदय के भाव पर ही कार्य करना अति आवश्यक होता हैं । कुछ तांत्रिकों व चिकित्सकों के द्वारा किए जाने वाले कई रोगों का इलाज भी इसी सिद्धांत पर किया जाता हैं की व्यक्ति भावनात्मक स्तर से स्थिर हो सके । जो मूल रूप से व्यक्ति को मानसिक स्थिरता प्रदान करें । क्योंकि सिद्धांत: मानसिक स्थिरता स्वस्थ्य व्यक्तित्व की पहचान हैं । उपरोक्त सभी सूत्रो के अनुसार आंतरिक मस्तिष्क के सिद्धांत की पुष्टि चतुर्थ भाव से होती हैं और कारक ग्रह चंद्रमा बनते हैं । हृदय के भाव चंद्रमा हैं कुंडली में चतुर्थ भाव के स्वामी चंद्रमा हैं । अतः आंतरिक मस्तिष्क के भी स्वामी चंद्रमा ही हैं । अन्य ज्योतिषीय सूत्रों द्वारा इसे समझा जा सकता हैं ।
रहस्य :- तंत्र मार्ग में सिद्धि आंतरिक मस्तिष्क के माध्यम से ही संभव हैं ।।
जय गुरुदेव जय महाकाल
आनंदेश्वर नाथ महादेव आप सभी की मनोकामना को पूर्ण करें इसके पश्चात अपनी वाणी को विराम ।।